देखिए हम जो भी कहते है ,वो सामने मैं कह देते है ,पीठ पीछे कहने मैं वो मज़ा नहीं आता ,क्योंकि चेहरवा का रंग बदलते और उड़ते देखने का अपना ही अलग मज़ा है . इसलिए अवधेश प्रीत जी की किताब सामने मैं रख के लिख रहा हूँ ,ये मेरा इस साल का दूसरा विकेट है .
“अशोक राजपथ ” वैसे जो पटना से तालुक नहीं रखते उन्हें ये मैं बता देता हूँ ,की ये एक सड़क है जो पटना के छोर से दुसरे छोर को जोड़ती है , पटना का दिल तो नहीं कह सकते मगर दिल से कम भी नहीं है .बड़े -बड़े खेल हुए है यहाँ अरे न -न इतनी भी चौड़ी नहीं है की कोहालिया आ के शतक मार देगा ,संकरी सी है दोनों और दुकाने …..अरे अरे इ का हम आप को बताने लग गए किताब आर्डर कर के मंगाइए और खुद ही पता कर लीजिये क्या है ?क्या नै है ?
वैसे रिव्यु वगेरह पढ़ –पुर के कुछ करने मैं विश्वास रखते है तो बता देते है ,कहानी ऊ टाइम की है जब फ़ोन करे के और सुने दोनों का पैसा लगता था ,इ नहीं की जियो लगाए और जियो –जियो कर रहे है रात भर ,बस पटना के कुछ बदनाम हॉस्टल का सचित्र वर्णन है ,कहानी एक दम खांटी बिहारी स्टाइल मैं है ,बस लिट्टी चोखा का कमी दिखा ,वैसे मुर्गा -भात और दारू के साथ स्टूडेंट यूनियन का चर्चा अच्छा रहा ,मगर कहानी कुछ –कुछ अधूरी रही ,अब शायद पार्ट -2 आवे वाला होगा इसका .जैसे –जैसे किताब ख़तम हो रही थी नशा चढ़ते जा रहा था ,मगर ससुरा और पिबे का मन था मगर ऐसा लगा की दारुबंदी हो गयी .
मैं आशा करता हूँ कि एकर दूसरा पार्ट आवे नहीं तो हमरे बहुत से सवाल का जबाब अवधेश प्रीत जी से लेना पड़ेगा .